शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

को बचाय रे

मास्टर ओंकाल्लाल हिन्दी पढ़ावत में,लिखो कुछू और कुछू और बोल जात रहे
लरिका मुसुकायँ देखें दायें और बायें जबै खैनी धरी हथेली पे ताली दे सजाय के

मल्हार राव एक कारों भुजंग सो हो देखत ही बोलत सनीचर सो दिखात है ।
अउर ई मल्हरवा पाठ कबहुँ याद ना करै अकलै में नाहिं वाके घुसति कोऊ बात है

ओंकाल्लाल की खेनी से पियरे हाथ गदगदी गद्दी सम दनादन कूटे जात हैं ।
दाँतन में खैनी दबाय हड़काय रहे गोल-गोल आँखिन मा गुस्सा मिची जात हैं

गोल-मोल देह ,ऊँची धोती पे सलूका फूले गाल सबै लरिकन में ढब्बू जी कहात हैं
अरे हट काला डूँड सनीचर बज्जर मसान मुख से उचारि रहे मार गुस्साय के

झपाक् झापड़ थप्पड़न का को गिनात रौरा मचात हाय हाय ,हाय हाय बप्पा रें
उछल -उछल चीख रहो कूदि-कूदि जात लरिकन में सोर ढब्बूजी सों को बचाय रे

होई का बखानि के

मालवा की धरती की साँवली -सी माटी को सौंधा संग संग हमार डोलत लगे-लगे
नदियन को उहै जल सूखि नहीं पावत हमार नयना में समायो पिरीत पगे !
जीवन को नेह भरि ,आपुनपो देइ करि अन्न से रची ई देह रचना उहै की है
बोल-चाल रीत-भाँत सहज सुभाव अउर निहछल वेवहार की परतीत भी उहै की है ।
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लरिकिन के स्कुलन को टोटा रहे तबै हम पढ़े रहे सदा लरिकन के साथ में ।
सबसे ज्यादा नंबर हमारे ही आवत,मानो ना तो पूछ आउ जाइ आस-पास में
लरिकिन के पढ़न को परबंध कहां रहे तबै घरै बैठ जाति पास हुई दर्जा पाँच में
हम तो सातवी किलास पे ही परवेस लियो जामेटरी एलजबरा पढ़े सबै का साथ में
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मदन लाल इँगलिस को खींच-खींच बोले जौन मुँह में खटास वाके घुलीघुली जात हौ
एक संग्राम सिंग हरी सिंग से कहे कहत रहे टपक सून्द्री बियाह लावेगो बाद को
भँवर सिंग पैरेलल को कहत रहे प्यारे लाल मुस्किल ह्वै जात संग बैठनो किलास में ।
एक बेर संगरमवा पेड़ तरे खड़ो रहे ,तबै ही ततैयन ने झपट्टा मारि घात में .

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हाय-हाय करि बिलखात भागो चप्पल छोड़ि ,कुरसी के आस-पास कूदै मार चिल्लाय के
मारे दरद मुँह लाल लाल भयो गाल नाक हाथ मूँ पे हू  ततैया डंक छाये के
हाय,हाय,हाय,संगराम बिलखाय ,हरी सिंग छोट भाय कहै कहा करौं माय रे
भागमभाग सब मचाय ,कुछू पावैं ना उपाय तिन्हें कउन समुझाय के कुछू तो बताय रे !
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ततैया सुभाव ,देखे आव नाहीं ताव ,जौन पावे आस-पास डंक मारि तड़पाये रे !
भंवर सिंग दौर पर्यो  कुप्पी उठाय लायो डारि -डारि घासलेट बिलबिलात गात पे
पीर ना पटाय संगराम चिल्लाय बावलो सो नाच कूद रह्यो चैन परे नाहिं रे
दौरि-दौरि लरिकन के झुंड आय छाय, सबै बन्दरन की नाईं झाँकि आँखि फार-फार के
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मास्टर के रोके, कोई रुके नाहिं अँधाधुंध भागे सारे छोरे मार हू ते ना डेराय ही
तीनि लरकिनी ,हमार साथ अउर दुइ जनीं ,परमिला औ'सान्ती रहे उहै किलास की
का करैं रुबास आय , हँसी आय,  भाँत-भाँत छोरे घिरेआसपास के सारे किलास के
केहू भाँति रास्ता बनाय निकरि आये, अउर आपुन घरै घुसे जाय तुरत भागि-भागि के ।
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ई तो एक दिन की कहानी भई ,भइया रे ,
और का बतावैं ,का करिहौ अउर जानि के
कालीसिंध नद्दी और सोनकच्छ कस्बा को
हाल मजेदार पर का होई का बखानि के !