गुरुवार, 11 नवंबर 2010

बदरा पे धूप

*
देसवा की धरती पे पक रहे अमवा
गूंज रही कोयल की कूक ,
बदरा पे धूप सजे मनवा माँ हूक उठे ,
बिरही जियरवा टूक टूक!
*
खेत धन-लछमी ,अँगनवा में गोरिया ,
बाली उमरिया तहू पे लड़कौरिया .
चुरियन की खनक संग अंग में उछाह
दुई हाथन पछोरे भरि सूप !
*
अबकि बार सारो निपाट देई करजा ,
सहर लै जाइ के घुमाइ लाई ओहिका ,
नैनन में चाव भरे सपन सजाय
दमक-दमक नई चूनर में रूप
*
पी-पी पपीहरा गुँजाइ रह बनवा ,
जागत हिलोर उमगात मोर मनवा ,
ढमक ढोल बाजे ,मंजीर खनखनावे,
बजे चंग नेह-रंग रहे डूब !
*

6 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

प्रतिभा जी बहुत सुन्दर रचना है। बधाई।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

इस सुन्दर रचना की चर्चा
आज के चर्चा मंच पर भी है!
http://charchamanch.blogspot.com/2010/11/337.html

Dorothy ने कहा…

खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार
सादर,
डोरोथी.

M VERMA ने कहा…

देसवा की धरती पे पक रहे अमवा
गूंज रही कोयल की कूक ,
देसवा की धरती को याद करने का यह अन्दाज .. वाह क्या कहने

शकुन्तला बहादुर ने कहा…

प्रतिभा जी,
आपके सभी लोकगीत विविध कथ्यों को लेकर भी सुकोमल संवेदनाओं से ओतप्रोत माधुर्य को समेटे हैं। ध्वन्यात्मक शब्दों और द्विरुक्त शब्दों ने गीत में खनक
सी भर दी है,जो देर तक मन में गूँजती रहती है।
मन तरंगित हो गया।आनन्द के इन क्षणों के लिये आपका आभार।आपके काव्य-कौशल को नमन!!!

Taru ने कहा…

शकुंतला जी kee टिप्पणी पढ़ती हूँ..तो उनके शब्द ही देखती रह जाती हूँ..kitni sunder naazuk tipani kehti hain woh...:(....अब तो मुझे apne रहे सहे rookhe sookhe शब्द भी याद नहीं आ रहे..:/

हम्म chaliye दो बातें याद आयीं...एक तो प्रवाह कमाल का है.....दूसरी... 'शब्द चयन'....इतने सरल शब्द और बहुत प्यारा गीत......पढ़ते पढ़ते धुन स्वयं ही बनती गयी......

सुंदर प्रवाहमयी रचना के लिए बधाई !