बुधवार, 1 सितंबर 2010

श्री कृष्ण-जन्माष्टमी पर - कृष्ण का न्याय.

*
गोरस की हाँडी कबहुँ बोरसी पे चढी नायँ ,तीज-त्यौहार हू कढ़ाही रही छूछ ही,
एकै बार पेट तो भराय दिन भरै माँझ रात पेट बाँधि काट लेव चुपैचाप ही ,
कइस दिन बिताय रहे जाके जगदीस मीत.साँच हैकि झूठ ही बनाय के सुनायो है ,
मीत हैं तो मिलबें की चाह नाहिं दीखी कबहुँ कैसो कठोर है करेजो जौन पायो है
*
कौन भाँ ति सामनो करौंगो हौं दरिद्र -दीन बे तो द्वारका के नाथ सबै विधि लायक हैं
खाली हाथ को हिलात जाय ठाड़ होऊँ,इहाँ भेंट को कुछू न पास कोऊ न सहायक है
बाम्हनी ने चार मुठी चिवरा उधार माँगि ,कपरा की पुटरी में दीन्ह गाँठ बाँधि के
देखियो सँभारिहौ ई बिखरि न जाय कहूँ कपरा पुरान, तौन राखि लीजो साधि के
*
तुम्हरे गुरु-भाई बे द्वारका के धीस /ब्योहार इहैं उहाँ कुछू उहाँ भेंटिबे को चाहिजे ,
आगे को हाल जानि ह्वैहैं सहाय ,पिया आज तो उहाँ की गैल तुरतै ही जाइए .
*********
भुज भरि भेंटे लाइ पाट पे बिठायो ,नीर नैन भरि आयो देखि दीन दसा मीत की ,
पहिले ही आय, के उरिन होत एते दिन काहे को लगाय बलिहारी परतीत की
लाजन के मारे कांख दाबे दुरावत हैं ,भेंट नहीं पावत हैं भुज भरि नेह सों,
खींचि लियो हाथ थाम लीन्हीं पुटरिया, ई घट-घटकी जाने बात, इनसों छिपात को
*
वह रे सुदामा कइसी नियत तुम्हार, जासों नियति तुम्हार आज ई दिन दिखायो हैं.
उहै भूखवारी मेरो भाग खाए की कसर चुकायबे को लै के पुटरिया आज मोर मीत आयो है
काहे न देत जौन भेंट है हमार ,इहै चाउर के कारनै हम राह देखिबे करी,
अब तुम निपाट दीन व्याज और मूल विधना हू ने तुम्हार ,सबै भर पाई करी ,
*
दियो गुरु माई, सारो चबेना सपोटि गए, भौजी के चिऊरा हू देत नहीं लालची ,
पहले उधारवारो करजा चुकाइ देहु ,पाछे मोर-तोर बात प्रीत-व्योहार की .
अन्न-धन-धाम जौन अटके परे है इहै बाधा रही एक आजु पार करो भाव सों
खींचि लई चिऊरन की पोट लै उछाह भरे भरि-भरि मूठी ,बे चबाइ रहे चाव सों ,
*
सकिलि आईँ रुकमिनी ,अकेल ना तुम्हार सबै, हम हू ना छोड़ी जौन है हमार भाग के
छीनि लई ,थोर-थोर रानिन ने बाँट लई ,हमारो जो अहै अब राखौंगी साधि के
हाय गजब ,एक-एक मूठी पे एक लोक वारत हैं बाम्हन पे मीचि आँखि आपुनी,
अइसे लीन भए और सबै बिसराय दियो हम जो इसारे समुझात रहे ना सुनी .
*
मान-पान ,भयो सबै भाँति सतकार पाइ बिदा भे सुदामा ,आय ठाड़ भए द्वार पे ,
अब ना लगायो देर दुख ना उठायो मीत , अंतर की बात मोंसों बाँटि लियो आय के .
समुझै न विप्र कुछू चकियायो देखि रह्यो ,मोहन की लीला ,को पार कहाँ पाइये ,
बिदा भे सुदामा पछतात जात मारग में काहे मेहरारू की बातन में आइगे !
*

पथ की थकान ई पुरानो पदत्रान, चलतई में घिसानो मार चुभो जात पायँ में
चिउरा उधार के चुकाइबे परेंगे ,और हाल ई मिलाप के ऊ पूछिंगे गाँव में !
बावली है बाम्हनी ,इहाँ की गैल ठेलि के लगाइ आस बैठी जिमि भाग फिरि जाइंगे
लागी जा की आस रही, कुछू मिलो नायँ घरनी की बात मानि जाने काहे इहाँ आय गे ,.
*
जातइ ,करारी डाँट ओहिका लगावत हौं ,राज-पाट लायो हूं सो रखि ले सम्हालि के
थोरो सो आपुनो उठाय सिर जीवत जो ,सारो लै डारो द्वारका की गैल डारि के .
करत बिचार देखि रहे नए साज-बाज ,कतहूँ ना दिखात रहे जीरन अवास जो
हाय-हाय भूलि पंथ , फिरै उहाँ आय गयो ,अब तो चार चाउर ही भेंट नहीं पास हो,
*
विप्र पछिताय रह्यो ,कहूँ निस्तार नाहिं,कान भरमात जइस टेरति है बाम्हनी
अपुन छिपाय मुँह दुआरे से लौटि चले ताही पल दुपट्टा गहि खींचि लियो भामिनी .
सारी की चींट फारि चोट आँगुरी पे बांधी , द्रौपदी को रिन उन चुकायो केहि भाँति सों ,
ब्याज सहित मूल, जो चबेना को वसूल करि आपुनो ही भाग ,राज बाँटि दियो चाव सों!
*