गुरुवार, 6 जनवरी 2011

गंगिया री, अति दूर समुन्दर

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नैहर की सुधि आई, हो गंगिया नैहर की सुधि आई !
बिछुड़ गईं सब बारी भोरी !
संग सहिलियां आपुन जोरी
ऊँचे परवत जनमी काहे नीचे बहि आई !
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उछल-बिछल, बल खाइत ,विरमत खेलत आँख-मिचौली
वन घाटिन में दुकि इठलाइत ,खिलि-खिल संग सहेली
नीर भरी छल-छल छलकाइत,
पल-पल मुड़ि-मुड़ि देखति .
बियाकुल लहर हिलोरत पल पल कइसन समुझाई !
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परवत पितु की गोद ,हिमानी आँचल केरी छाया ,
इहाँ तपत तल ,बहत निमन मन सहत,छीन भई काया .
सिकता सेज ,अगम पथ आगिल,
नगर-गाम वन अनगिन ,
गंगिया री अति दूर समुन्दर कइसन सहि पाई !
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गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

बाउल गीत

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तेरे रंग डूबी, मैं तो मैं ना रही !
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एक तेरा नाम ,और सारे नाम झूठे,
ना रही परवाह जग रूठे तो रूठे
सुख ना चाहूँ तो से ,ना रे, ना रे ना, नहीं !
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एक तु ही जाने और जाने न कोई,
जाने कौन अँखियाँ जो छिप-छिप रोईं
एक तू ही को तो , मन और का चही !
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बीते जुग सूरत भुलाय गई रे ,
तेरी अनुहार मैं ही पाय गई रे .
पल-छिन मैं तेरे ही ध्यान में बही !
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एक खुशी पाई तोसे पिरीतिया गहन ,
तू ना मिला, मिटी कहाँ जी की जरन ,
तेरे बिन जनम, बिन अगन मैं दही !
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कि मैं झूठी, कि ये वचन झूठा ,
जा पे सनेह सच, मिले सही क्या .
रीत नहीं जानूँ, बस जानूँ जो कही !
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रविवार, 21 नवंबर 2010

बहिनी का भाग.

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तेरी कमाई में ओ,मेरे भइया कुछ तो है बहिनी का भाग ,
इक नया पैसा हजार रुपैया में ,बस इतना कर दे निभाव ,
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भौजी को गढ़वा हे हीरे के गहने ,कांच की चुरियाँ मोय ,
मइके इतना ही मान बहुत रे ,तेरी तरक्की होय.
बरस में दो दिन पाऊँ वो देहरी ,इतना सा मन का चाव.
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ये ही बहुत रे ,चिठिया पठा दे आए जो तीज-तेवहार
मइया औ बाबा किसके रहे रे ,भइया से मइका हमार .
फिर तो ये मेरा, तेरा वही घर, जीवन का ये ही हिसाब.
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माँ जाए भाई सा दूजा न कोई ,दरपन सा निहछल भाव .
भइया की भेंटें ऐसा लगे मइया पठवा दिहिन है प्रसाद,
सुख हो या दुख,गए मौसम के, रुख पर तेरा न बदला सुभाव .
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बचपन के सुख को जी लूँगी फिर से बाँधूँगी यादों की गाँठ ,
संबल बनेंगी रँग से भरेंगी ,जब भी जिया हो उचाट .
देखूँ तुझे सियरावे हिया, लागे बाबुल की छू ली छाँव .
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गुरुवार, 11 नवंबर 2010

बदरा पे धूप

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देसवा की धरती पे पक रहे अमवा
गूंज रही कोयल की कूक ,
बदरा पे धूप सजे मनवा माँ हूक उठे ,
बिरही जियरवा टूक टूक!
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खेत धन-लछमी ,अँगनवा में गोरिया ,
बाली उमरिया तहू पे लड़कौरिया .
चुरियन की खनक संग अंग में उछाह
दुई हाथन पछोरे भरि सूप !
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अबकि बार सारो निपाट देई करजा ,
सहर लै जाइ के घुमाइ लाई ओहिका ,
नैनन में चाव भरे सपन सजाय
दमक-दमक नई चूनर में रूप
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पी-पी पपीहरा गुँजाइ रह बनवा ,
जागत हिलोर उमगात मोर मनवा ,
ढमक ढोल बाजे ,मंजीर खनखनावे,
बजे चंग नेह-रंग रहे डूब !
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बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

विवाह गीत - बन्ना

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ठाड़े रहियो बनरा ओही गली के किनारे पे
गौरा पूजन हम चौरे पे जइबे ,भौजी के सखियन के साथ ,
पूजन की थारी के रोली अखत धर, तोही का मँगिबे जनम सात,
मिसरी-मखाने परसाद धरि जइबे ,
ठाड़े रहियो ओहि मठिया के पिछाड़े पे
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माँगन सुहाग भरभुजिन के जइबे ,सखियन के गीत की बहार
अमर सिंदूर का असीस लेइ आइबे तौन होई मंगलचार
नीम तरे चौतरा पे नेक बिलमइबे ,
ठाड़े रहियो बनरा, वा पान-फूल वारे के
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कुंकुमपत्री धरि के गनेश पहिल पुजिबे,कोई विघन ना होय
बारी कुँआरी ले सातों ही फेरे ,अचल सुहागिन होय
आँचल असीस भरे ओ ही गैल जाऊँगी
अकेल ठाड़े रहियो बनरा, बाहर के ओसारे पे
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दूब-तेल पूजिवे ,हलदी की छींट डारि ,जइबे माँ के दुआर
उनके परस रूप चढ़े सवायो ,पूरे मन- कामना हमार
कनिया अरघ-जल सींच रही मारग, माथे सुहागिनी की छाँय
देखे रहियो ऊपर के छज्जा के मुँड़ारे से.
ठाड़े रहियो ...
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गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

बटोहिया -

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राह तीर पनघट पे गागर को धोय माँज,
सीस साधि इँडुरी ,जल धारि पनिहारिया
पंथी से पूछि रही कौन गाम तेरो ,
तोर नाम-काम कौन, कहाँ जात रे बटोहिया.
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जनम से चलो जात ,मरण की जातरा पे,
मारग मैं धूप-छाँह आवत-है जात है !
कोई छाँह भरो थान देखि बिलम लेत कुछू ,
कोई थान ,घाम गात ताप अकुलात है !
बेबस चलो जात कोऊ रोके को दिखात नाहीं
मारग पे जात लोग साथ रे बटोहिया !
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जाने कहां ते ई धरती पे आय पड़्यो
जाने कइस ,जाने कहाँ ,जाने काहे जानो नाहिं
कोऊ नाहीं हुतो, कोऊ जान ना पिछान
खाली हाथ रहे दूनौ आप हू को पहचानो नाहिं
मारो-मारो फिरत हूँ दुनियां की भीर
चलो जात हूँ अकेलो,  कहात हूँ बटोहिया !
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साथ लग जात लोग ,और छूट जात हैं
नाम मोय नायं पतो ,लोग धर दीनो है
जातरा में पतो कौन आपुनो परायो कौन
सुबेसे चलो हूँ संझा तक गैल कीन्हों है ,
पूछति है बार-बार कौतुक से भरी नार
पथ को अहार ,कहा लायो रे बटोहिया ,
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माथे धरी पोटली में धर्यो करम को अचार ,
रोटी तो पोय के इहाँ ही मोहे खानी है ।
मोह-नेह भरे चार बोल तू जो बोल रही
ताप और पियास हरि जात ऐसो पानी है
आगे को रँधान हेत करम समेट मीत,
बाँध साथ गठरी में गाँठ दै बटोहिया !
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राह अनबूझी सारे लोग अनजाने इहाँ ,
आय के अकेलो सो परानी भरमात है
वा की रची जगती के रंग देखि देखि मन
ऐसो चकियायो अरु दंग रहि जात है !
भूलि गयो भान काहे भेजो हैं इहाँ पे ठेल
ओटन को लाय के कपास रे बटोहिया
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उहै ठौर जाए पे पूछिंगे कौन काम कियो ,
सारो जनम काटि कहो लाए का कमाय के
घड़ा जल पूर सिर , पनिहारी हँसै लागि,
बात को जवाब कइस देहुगे बनाय के .
धोय-माँज मन की गगरिया में नेह पूरि
पल-पल सुधि राख जिन पठायो रे बटोहिया
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बुधवार, 1 सितंबर 2010

श्री कृष्ण-जन्माष्टमी पर - कृष्ण का न्याय.

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गोरस की हाँडी कबहुँ बोरसी पे चढी नायँ ,तीज-त्यौहार हू कढ़ाही रही छूछ ही,
एकै बार पेट तो भराय दिन भरै माँझ रात पेट बाँधि काट लेव चुपैचाप ही ,
कइस दिन बिताय रहे जाके जगदीस मीत.साँच हैकि झूठ ही बनाय के सुनायो है ,
मीत हैं तो मिलबें की चाह नाहिं दीखी कबहुँ कैसो कठोर है करेजो जौन पायो है
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कौन भाँ ति सामनो करौंगो हौं दरिद्र -दीन बे तो द्वारका के नाथ सबै विधि लायक हैं
खाली हाथ को हिलात जाय ठाड़ होऊँ,इहाँ भेंट को कुछू न पास कोऊ न सहायक है
बाम्हनी ने चार मुठी चिवरा उधार माँगि ,कपरा की पुटरी में दीन्ह गाँठ बाँधि के
देखियो सँभारिहौ ई बिखरि न जाय कहूँ कपरा पुरान, तौन राखि लीजो साधि के
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तुम्हरे गुरु-भाई बे द्वारका के धीस /ब्योहार इहैं उहाँ कुछू उहाँ भेंटिबे को चाहिजे ,
आगे को हाल जानि ह्वैहैं सहाय ,पिया आज तो उहाँ की गैल तुरतै ही जाइए .
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भुज भरि भेंटे लाइ पाट पे बिठायो ,नीर नैन भरि आयो देखि दीन दसा मीत की ,
पहिले ही आय, के उरिन होत एते दिन काहे को लगाय बलिहारी परतीत की
लाजन के मारे कांख दाबे दुरावत हैं ,भेंट नहीं पावत हैं भुज भरि नेह सों,
खींचि लियो हाथ थाम लीन्हीं पुटरिया, ई घट-घटकी जाने बात, इनसों छिपात को
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वह रे सुदामा कइसी नियत तुम्हार, जासों नियति तुम्हार आज ई दिन दिखायो हैं.
उहै भूखवारी मेरो भाग खाए की कसर चुकायबे को लै के पुटरिया आज मोर मीत आयो है
काहे न देत जौन भेंट है हमार ,इहै चाउर के कारनै हम राह देखिबे करी,
अब तुम निपाट दीन व्याज और मूल विधना हू ने तुम्हार ,सबै भर पाई करी ,
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दियो गुरु माई, सारो चबेना सपोटि गए, भौजी के चिऊरा हू देत नहीं लालची ,
पहले उधारवारो करजा चुकाइ देहु ,पाछे मोर-तोर बात प्रीत-व्योहार की .
अन्न-धन-धाम जौन अटके परे है इहै बाधा रही एक आजु पार करो भाव सों
खींचि लई चिऊरन की पोट लै उछाह भरे भरि-भरि मूठी ,बे चबाइ रहे चाव सों ,
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सकिलि आईँ रुकमिनी ,अकेल ना तुम्हार सबै, हम हू ना छोड़ी जौन है हमार भाग के
छीनि लई ,थोर-थोर रानिन ने बाँट लई ,हमारो जो अहै अब राखौंगी साधि के
हाय गजब ,एक-एक मूठी पे एक लोक वारत हैं बाम्हन पे मीचि आँखि आपुनी,
अइसे लीन भए और सबै बिसराय दियो हम जो इसारे समुझात रहे ना सुनी .
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मान-पान ,भयो सबै भाँति सतकार पाइ बिदा भे सुदामा ,आय ठाड़ भए द्वार पे ,
अब ना लगायो देर दुख ना उठायो मीत , अंतर की बात मोंसों बाँटि लियो आय के .
समुझै न विप्र कुछू चकियायो देखि रह्यो ,मोहन की लीला ,को पार कहाँ पाइये ,
बिदा भे सुदामा पछतात जात मारग में काहे मेहरारू की बातन में आइगे !
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पथ की थकान ई पुरानो पदत्रान, चलतई में घिसानो मार चुभो जात पायँ में
चिउरा उधार के चुकाइबे परेंगे ,और हाल ई मिलाप के ऊ पूछिंगे गाँव में !
बावली है बाम्हनी ,इहाँ की गैल ठेलि के लगाइ आस बैठी जिमि भाग फिरि जाइंगे
लागी जा की आस रही, कुछू मिलो नायँ घरनी की बात मानि जाने काहे इहाँ आय गे ,.
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जातइ ,करारी डाँट ओहिका लगावत हौं ,राज-पाट लायो हूं सो रखि ले सम्हालि के
थोरो सो आपुनो उठाय सिर जीवत जो ,सारो लै डारो द्वारका की गैल डारि के .
करत बिचार देखि रहे नए साज-बाज ,कतहूँ ना दिखात रहे जीरन अवास जो
हाय-हाय भूलि पंथ , फिरै उहाँ आय गयो ,अब तो चार चाउर ही भेंट नहीं पास हो,
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विप्र पछिताय रह्यो ,कहूँ निस्तार नाहिं,कान भरमात जइस टेरति है बाम्हनी
अपुन छिपाय मुँह दुआरे से लौटि चले ताही पल दुपट्टा गहि खींचि लियो भामिनी .
सारी की चींट फारि चोट आँगुरी पे बांधी , द्रौपदी को रिन उन चुकायो केहि भाँति सों ,
ब्याज सहित मूल, जो चबेना को वसूल करि आपुनो ही भाग ,राज बाँटि दियो चाव सों!
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