बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

का कर लेई काजी

मोहे टी.वी. मँगाय दे मैं टिविया पे राजी !
जा पै होइ रँगवारो टीवी करौं ओही से सादी !
*
काला और सुपेद न भावै ,टीवी बस रंगवारो ,
बिना रँगन को मजा न आवे तुमहू नेक विचारो !
छैल-छबीली फर्वट छोरी दो करवाय मुनादी
*
मरद चलेगा लंबा-नाटा काला-गोरा कोई,
मोटा पातर,मूँछ-निमूछा फरक पड़े ना कोई !
दिन भर बाहर रहै मरद ,रौनक टीवी से हाँ ,जी !
*
बंदर जैसा हो कोई , जा की महरारू सुन्दर ,
हर देखैवाले के हिय मां हूक उठै रह रह कर !
सरत लगा ले कोई चाहे ,हौं ही जितिहौं बाजी !
*
पढ़ी-लिखी तो नहीं खास पर समझूँ ढाई आखर ,
उइसे ही सब कहें सयानी ,का होई पोथी पढ़
ज्यादा पढी-लिखी छोरी तो लगे सभी की दादी !
*
जइस खुदा जी खुदै देत सक्कर खोरेन का सक्कर ,
हमरा भी हुइ जाई कलर टीवी वाले सों चक्कर
टी.वी.वाला राजी तो फिन का कर लेई काजी !

चंदन के फूल

*
चँदन केर बिरवा मइया तोरे अँगना
कइस होई चँदन क फूल !
*
कनिया रहिल माई बाबा से कहलीं ,
लेइ चलो मइया के दुआर !
केतिक बरस बीति गइले निहारे बिन
दरसन न भइले एक बार !
हार बनाइल मइया तोहे सिंगारिल ,
चुनि-चुनि सुबरन फूल !
*
जइहौ हो बिटिया, बन के सुहागिनि ,
ऐतो न खरच हमार ,
आपुनोई घर होइल आपुन मन केर
होइल सबै तेवहार !
बियाह गइल , परबस भइ गइले हम ,
रे माई तू जनि भूल !
*
ना मोर पाइ धरिल एतन बल ,
ना हम भइले पाँखी !
कइस आइल एतन दूरी हो
कइस जुड़ाइल आँखी !
कोस कोस छाइल गमक महमही ,
पाएल न चँदन क फूल !
*
आपुनपो लै लीन्हेल गिरस्थी
अब मन कइस सबूरी !
चँदन फूल धरि चरन परस की -
जनि रह आस अधूरी !
विरवा चँदन ,गाछ बन गइला
मइया अरज कबूल !
*

माँ री, बुला एक बार

फिर से उसी घर में थोड़ा थोड़ा-सा रह लूँ माँ री, बुला एक बार !
*
ससुरे के आँगन में पड़ने लगेीजब से सावन की बदरी की छाया,
कुंडी दुआरे की खटके जरा ,यों लगे कोई मैके से आया !
पग को तो बिछुये महावर नें बाँधा ,सासुर की देहरी पहाड़ !
*
काहे को बिटिया जनम दिये मइया,क्यों सात फेरों में बाँधा
इतनी अरज मेरी सुन लीजो बीरन टूटे न मइके का धागा !
भौजी मैं चाहूँ न सोना ,न चाँदी ,तुम्हरा तिनक भर दुलार !
*
निमिया के झूले से नीचे उतारी छिनी सारी बचपन की सखियाँ ,
ऐसा न कोई दिखे जिससे कह पाऊं खुल के मैं सुख-दुख की बतियाँ !
ननदी करे अपने भइया को रोचना मन को सकूँ ना सम्हार !
*
होकर परायी, नयन नीर भर, पार कर आई निबहुर डगरिया
तूने भी भैया पलट के न देखी कैसी बहन की नगरिया !
काहे को बाबुल सरगवास कीन्हा ,छोड़ी धिया बीच धार !
माँ री, बुला एक बार .... !

ससुरारै में निदिया सताये रे

ससुरारै में निदिया सताये रे ,
जी भर के कबहुँ ना सोय पाय रे
मोरी अक्कल चरै का चलि जात हौ,
ससुरारै में बावरी सी हुइ गई !
*
सैंया बोले गैया को चारा डालना ,
मैं भइया सुन्यो निंदिया की झोंक में ,
छोटे देउर को नाँद में बिठा दियो ,
और आय के बिछावन पे सोय गई !
*
बहू बछिया गुवाले को सौंप दे ,
मैं बिटिया सुन्यो निंदिया की झोंक में ,
तो ननदिया को पहना-उढ़ाय के ,
आपने कंठ से लगाय मिल-भेंट ली ,
और जाय के गुवाले को दे दिहिन !
फिर आय के बिछावन पे सोय गई !
*
मैरी दवा की पुड़िया बहू लाय दे,
हवा-गुड़िया सुन्यो नींद के खुमार में !
लाई रबड़ की बबुइया ढूँढ खोज के ,
आगे बढ़ के ससुर जी पे उछाल दी,
और आय के बिछावन पे सोय गई !
*
पहने कपड़े बरैठिन के दै दियो ,
कह दीजो हिसाब पूरो हुइ गयो!
गहने कपड़े सुन्यो मैं आधी नींद में ,
उनके बक्से से जेवर निकाल लै,
और जोड़े धराऊ में लपेट के
धुबिनिया को पुटलिया पकड़ाय दी
और लेट के बिछावन पे सोय गई !
*
हँडिया दूध की अँगीठी पे चढ़ाय दे ,
थोड़ो ईंधन दै के आँच भी बढ़ाय दे ,
चार मुट्ठी भर झोंक दियो कोयला ,
हाँडी गोरस की धरी वापे ढाँक के
और आ के बिछावन पे सोय गई !
*
जाने कैसे मैं लेटी औंघाय गई ,
दूध उबल-उबल सारा जराय गा ,
सारा हाँडी का रंग करियाय गा !
मैंने टंकी में चुपके डुबाय दी ,
और जाके बिछावन पे सोय गई !
*
मारे नींद के कुछू न समझ आय रे ,
ससुरारै मे बावली सी होय रई !
*

छिंगुनिया के छल्ला

*
छिंगुनिया के छल्ला पे तोहि का नचइबे ,
नथुनियाँ न झुलनी न मुँदरी जुड़ी ,
आयो लै के कनैठी अंगुरिया को छल्ला !
इहै छोट छल्ला पे ढपली बजइबे !
*
कितै दिन नचइबे ,गबइबे ,खिजइबे
कसर सब निकार लेई ,फिन मोर लल्ला
कबहुँ गोरिया तोर पल्ला न छोड़ब ,
चिपक रहिबे बनिके तोरा पुछल्ला !
करइ ले अपुन मनमानी कुछू दिन
उहै छोट लल्ला तुही का नचइबे !
*
भये साँझ आवै दुहू हाथ खाली
जिलेबी के दोना न चाटन के पत्ता ,
मेला में सैकल से जावत इकल्ला ,
सनीमा के नामै दिखावे सिंगट्टा !
हमहूँ चली जाब देउर के संगै
उहै ऊँच चक्कर पे झूला झुलइबे !
*
काहे मुँहै तू लगावत सबन का
लगावत हैं चक्कर ऊ लरिका निठल्ला !
उहाँ गाँव माँ घूँघटा काढ रहितिउ ,
इहाँ तू दिखावत सबै मूड़ खुल्ला !
न केहू का हम ई घरै माँ घुसै देब ,
चपड़-चूँ करे तौन मइके पठइबे !
*
लरिकन को किरकट दुआरे मचत ,
मोर मुँगरी का रोजै बनावत है बल्ला ,
इहाँ देउरन की न कौनो कमी
मोय भौजी बुलावत ई सारा मोहल्ला !
छप्पन छूरी इन छुकरियन में छुट्टा
तुहै छोड़, कहि देत, मइके न जइबे !
*
मचावत है काहे से बेबात हल्ला ,
अगिल बेर तोहका चुनरिया बनइबे ,
पड़ी जौन लौंडे-लपाड़न के चक्कर
दुहू गोड़ तोड़ब घरै माँ बिठइबे !
छिंगुनियाके छल्ला पे ...!
*

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

गंगा-जमुना

नैहर की सुधि अइसी उमडल हिया माँ ब्याकुल उठे हिलकोर ,
आगिल क मारग बिसरली रे गंगा घूम गइलीं मइके की ओर !
*
बेटी को खींचे रे मइया का आँचल टेरे बबा का दुलार ,
पावन भइल थल ,पुन्यन भरी भइली उत्तरवाहिनी धार* !
जहि के अँगनवा में बचपन बिताइन बाँहन के पलना में झूलीं
तरसे नयन,जुग बीते न देखिन, जाइत बहत चुप अकेली !
*
केतन नगर , वन ,पथ कइले मिली ना बिछुडी सहिलियाँ,
मारग अजाना बही जात गंगिया अकेली न भइया- बहिनियाँ !
कौनों दिसा बहि गइली मोरी जमुना,कैसी उठी रे मरोर !
मइया हिरानी रे ,बाबा हिराने जाइल परइ कौने ठौर !
*
ब्रज रज रचे तन, श्याम मन धरे मगन , देखिल जमुन प्रवाह,
दूरइ ते देखिल जुडाय गइली गंगा,अंतर माँ उमडिल उछाह !
जनम की बिछुडी बहिनी मिलन भेल , झलझल नयन लीने मूँद,
पलकन से बहबह झर- झर गिरे, रुक पाये न अँसुआ के बूंद !
*
व्याकुल ,हिलोरत दुहू जन लिपटीं उमडिल परेम परवाह,
दूनों ही बहिनी भुजा भर भेंटिल,तीरथ भइल परयाग !
दोनो के अँसुआ बहल गंगा-जमुना,इक दूजे में मिल हिरानी ,
धारा में धारा समाइल रे अइसे ,फिर ना कबहुँ बिलगानी !
*
लहरें- लहर सामर संग उज्जल गंगा-जमुन का मिलाप
अइसी मिलीं कबहूँ ना बिछुडलीं सीतल भइल तन ताप !
हिय माँ उमड नेह ,कंपित भइल देह गंगा भईं गंभीर
चल री सखी,मोर बहिनी चलिय जहँ सागर भइल सरीर !
(* गंगा का प्रवाह जब उत्तरगामी होता है तो उसका महत्व बहुत बढ़ जाता है ।)

नचारी - गौरा का सुहाग

गौरा का सुहाग -
नैना भरे माई दिहिले , सुहाग भर भर हंडा ,
एतन सुहाग गौरा पाइन धूम भइल तिहुँ खण्डा !
मारग में सगरी मेहरियाँ दौरि आवन लगलीं ,
गौरा के चरनन लगलीं सुहाग पावन लगलीं !ओ

खेतन ते भागी, पनघट ते भगि आई ,घाटन से दउरी धुबिनियाँ ,
गोरस बहिल ,ऐसी लुढकी मटकिया तौ हूँ न रुकली गुजरिया ,
दौरी भडभूजी ,मालिन ,कुम्हारिन , बढनी को फेंक कामवारी
गौरा लुटाइन सुहाग दोउ हाथन ,लूटेल जगत के नारी ।
ऊँची अटारिन खबर भइली , पहरे -ओढे लागीं घरनियाँ ,
करिके सिंगार घर आंगन अगोरे तक बचली फकत एक हँडिया ।
चुटकि-चुटकि गौरा उनहिन को दिहला ,एतना रे भाग तुम्हारा ,
दौरि दौरि , लूटि लूटि लै गईं लुगइयां ,जिनके सिंगार न पटारा !
एही चुटकिया जनम भर अगोरो ,मँहगा सुहाग का सिंदुरवा ,
तन मन में पूरो, अइसल सँवारो रंग जाये सारी उमरिया !

भुरजी ,कुम्हरिन से जाँचित चुटकि भर, कन्या सुहाग भाग मांगे ,
गौरा की किरपा भइल कमहारिन पे जिन केर सुहाग नित जागे !

गौरा का सेंदुर अजर अमर भइला ,उन जैसी कौ बडभागिन रे ,
इनही से पाये सुहाग, सुख, दूध, पूत ,तीनिउँ जगत की वासिन रे ।

नचारी - गौरा की बिदाई

तोरा दुलहा जगत से निराला उमा , मैना कहिलीं,
कुल ना कुटुम्व ,मैया बाबा,हम अब लौं चुप रहिलीं !
सिगरी बरात टिकी पुर में बियाही जब से गौरा ,
रीत व्योहार न जाने भुलाना कोहबर*में दुलहा !
भूत औ परेत बराती ,सबहिन का अचरज होइला ,
भोजन पचास मन चाबैं तओ भूखेइ रहिला !
ससुरे में रहिला जमाई, बसन तन ना पहिरे !
अद्भुत उमा सारे लच्छन , तू कइस पतियानी रे !
रीत गइला पूरा खजाना कहाँ से खरचें बहिना !
मास बरस दिन बीते कि ,कब लौं परिल सहना !
पारवती सुनि सकुची ,संभु से बोलिल बा -
बरस बीत गइले हर, बिदा ना करबाइल का ?
सारी जमात टिक गइली, सरम कुछू लागत ना !
सँगै बरातिन जमाई ,हँसत बहिनी ,जीजा !
हँसे संभु ,चलु गौरा बिदा लै आवहु ना ,
सिगरी बरात, भाँग, डमरू समेट अब, जाइत बा !
गौरा चली ससुरारै ,माई ते लिपटानी रे
केले के पातन लपेटी बिदा कर दीनी रे !
फूल-पात ओढ़िल भवानी लपेटे शिव बाघंबर ,
अद्भुत - अनूपम जोड़ी, चढ़े चलि बसहा पर !
(* कोहबर - नवदंपति का क्रीड़ागृह जहाँ हास-परिहास के
बीच कन्या और जमाई से नेगचार करवाये जाते हैं )

नचारी - नोक -झोंक

'पति खा के धतूरा ,पी के भंगा ,भीख माँगो रहो अधनंगा ,
ऊपर से मचाये हुडदंगा , ये सिरचढी गंगा !'
फुलाये मुँह पारवती !
*
'मेरे ससुरे से सँभली न गंगा ,मनमानी है विकट तरंगा ,
मेरी साली है, तेरी ही बहिना ,देख कहनी -अकहनी मत कहना !
समुन्दर को दे आऊँगा !'
*
'रहे भूत पिशाचन संगा ,तन चढा भसम का रंगा ,
और ऊपर लपेटे भुजंगा ,फिरे है ज्यों मलंगा !'
सोच में है पारवती !
*
'तू माँस सुरा से राजी ,मेरे भोजन पे कोप करे देवी .
मैंने भसम किया था अनंगा ,पर धार लिया तुझे अंगा !
शंका न कर पारवती !'
*
'जग पलता पा मेरी भिक्षा ,मैं तो योगी हूँ ,कोई ना इच्छा ,
ये भूत औट परेत कहाँ जायें ,सारी धरती को इनसे बचाये ,
भसम गति देही की !
*
बस तू ही है मेरी भवानी ,तू ही तन में में औ' मन में समानी ,
फिर काहे को भुलानी भरम में ,सारी सृष्टि है तेरी शरण में !
कुढ़े काहे को पारवती !'
*
'मैं तो जनम-जनम शिव तेरी ,और कोई भी साध नहीं मेरी !
जो है जगती का तारनहारा , पार कैसे मैं पाऊँ तुम्हारा !'
मगन हुई पारवती !
*

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

मेरी जोत ना धुँधुआय !

पीछे छूटि गई सारी भीर-भार !
अब तो उतरि गो सैलाब ,
जी में काहे की हरास ,
लै जात नहीं केऊ का उधार !
*
सँवारि दये बच्चा,
निभाइ दियो कुनबा ,
अब बार फँसे चाँदी के तार !
*
झेली छाँह-धूप सारी ,
राह पूरी करि डारी ,
थोरो बच्यो सो भी होय जाई पार !
*
सही लागे सोई करिबे ,
आपुन सिर उठाय जीबै !
केऊ और से लगइबे ना गुहार !
*
मोरे आपुने हैं सारे
कोई बूढ़ कोई बारे ,
बाँट लेई सारो दुख सुख सबार !
*
जौ लौं जियैये राम ,
खाली बैठिबो हराम,
ना केऊ की दया की दरकार !
*
दीन नाहीं हुइबे ,
मलीन नाहीं हुइबे ,
कुछु जादा नहीं चाहिबो हमार !
*
कोऊ पछितावा नहीं ,
अँसुअन की भाखा नहीं,
विरथा नाहीं गयो जीवन हमार !
*
आपुन पावनो लै लीन्हों,
हुइ पायो सो कर दीन्हो !
अब तो सामने ही होई लिखवार !
*
मोरी जोत ना धुँधुआय,
पूरी भभके औ बुझि जाय !
प्रभु से ऐही बस विनती हमार
*

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

बलम सिसकी दै-दै रोवैं !

*
सावन की तीजन को
भइया लिवाय गयो ,
धनि चली गइली प्योसार !
बलम सिसकी दै-दै रोवैं !
*
गद्दन पे लोटैं, दुलयइन सों लिपटें ,
तकियन पे मूड़ दै-दै मारैं !
रात भई, सँवरी न सेजिया ,
घिरे बदरा अँधियारे !
बापुरो मनई कइस सोवैं !
बलम सिसकी दै-दै रोवैं !
*
सावन महीना तो दुसमन हमायो,
गरजै बरसिबे का इहै ठौर पायो !
आयो जो भैया चली गई उतावल
सारो(साला) भा बैरी हमार !
बलम सिसकी दै-दै रोवैं !
*
काटन को दउरे रसुइया की देहरी ,
चहा क पियाला देखतई जूड़ी (बुख़ार),
खावे न पीवै ,करै का बिचारो ,
अब को सँभारनहार !
बलम सिसकी दै-दै रोवैं !
*
बेलन हू नाचे जो हाथ लेइ जुइया,
चुरियन के राग नचै रोटी की लुइया !
हालै न डोले ,,दिखाइ जोर हारि गये ,
चिपक्यो अँगुरियन पे मार !
बलम सिसकी दै-दै रोवैं !
*
मूड़े डारि लीनों वाकी चूनर को अँचरा ,
खनखन बजावैं वाकी चुरियन की झलरा ,
बस में न आव एक आटे को लोंदा
जरि गई, पानी बिनु दार(दाल) !
बलम सिसकी दै-दै रोवैं !
*
अईना पे माथे की बेंदी लगाय गई ,
सीसा के कौंधा में सूरत छिपाय गई !
आपुन मुखौटा गुमाय गयो, सूझै ना ,
उहै दीख जात बार - बार !
बलम सिसकी दै-दै रोवैं !

भइया-दूज!

मोरे बीरन का उज्जल माथा ,
रोली का टीका ,अक्षत का आँका !
मुख में धऱूँगी मोहन-मिठाई ,
आई रे, भइयादूज !
*
आरति कर ,ओहिका मुखड़ा निहारूँ ,
मुतियन की मुट्ठी भर-भऱ वारूँ !
जब देखूँ हँसता ही पाऊँ ,
सुख कितना मत पूछ !
*
लाख बरिस जीवै मोरा भइया !
मैं तो चाहूँ बस प्यार की छइयाँ
तेरा सुजस जग करे उजागर ,
मैं तेरे अँगना की दूब !
*

काँवरिया

सावन महीना बम्भोले को हिये धारि
त्यागि गृह साधु-भेस धारै है कँवरिया !
*
फूलन-बसन सों रुच-रुच सजी निहारि
ग्राम-जुवती बढ़ि आई राह कोर पे ,
काँवर की सोभा निहारि रही नैनन सों,
भइया रे ,इहां तुम आये हो कौन छोर से ?
कइस जतन से सजाई ओहार डारि
मोर मन देखि के जुड़ात, रे कँवरिया !
*
काँवर में भरि जल लाये लाये कौन तीरथ को ,
काहे ते ओहिका धरा ते ना छुआत हौ ?
दूर-पार देस ,भार काँवर को .काँधे लै ,
मारग अगम पाँ पयादे चले जात हौ !
और बात पीछे, पहले इहै बताय देहु
आये कहाँ ते कहाँ जात हो कँवरिया !1
*
जीवन- जलधार अथाह आदि-अंत नाय
काँवर में नीर हौं तहां से लै जात हौं
सीतल विमल ताही स्रोत को प्रवाह ,
लै जाय के दिगंबर भूतनाथ को चढ़ात हौं !
धरती की रज छुये राजस न होइ जाय
सुद्ध सतभाव को चढ़ावत कँवरिया !
*
मन की उमंगा लिये गंगा की तरंगा !
आपुन लघु पात्र जित समायो भरि लायो हूं !
कामना न मोरी कछु भावना चलाय रही
जाया धाम पूत नात सबै बिसारि आयो हूँ
राग-द्वेस ,मोह-मान भूलि के विराग धारि
जीवन के पुन्य-राग लीन है कँवरिया
*
कुछू बिलमाय लेहु चौतरा पे बैठि ,नेक
राम की रसोई को परसाद पाय लेहु रे ,
नीम की बयार में जुड़ाय लेहु स्रमित देह
धूप बरसात की तपाय कष्ट देत रे !
उत्तर की ओर मुड़ि जात वृत्ति जीवन की
देह धरे तीरथ लखात है कँवरिया !
*
भाव-लीन मानस में भूख-प्यास ,सीत-ताप ,
व्यापत न ,सींचति है भावना फुहार-सी !
माई री ,ममता में मन को न बोर ई है
तप की विराग भरी बेला त्योहार सी ,
एक व्रत है सो निभाइ के रहौंगो ताहि
सुविधा के हाथ ना बिकाइ हैं कँवरिया !
*
देह-भान भूलि भाव-लीन मन धारि व्रत
जात्रा में ऐते दिन परम सुख पायो रे !
कुछू नायँ चाहै बे रहत समाधिलीन ,
प्रकटन कृतज्ञता को आपुनो उपायो रे
पुन्य-थल भक्ति -जल परम पुनीत भरे
सत्य ही कृतार्थ हुई जात है कँवरिया !
*
इतै दिन मन साधि रहौं साधु निहचय करि ,
फिर तो गृहस्थ हूँ जगत को निभाइहौं ,
व्रत को सत-भाव आसुतोस को प्रभाव
धारि मानस की वृत्तिन को निरमल बनाइहौं
माई , आनन्द-नीर मानस पखारन को
पाप-ताप-साप हू नसाये, रे कँवरिया !
*
बरस-बरस मास-मास ऐही व्त धारि धारि ,
या में सत-भाव ही सुभाव बनि जात रे
काँटे और कंकर जो संकर की साधना में
ऊँची-नीची राहन को प्रसाद बन जात रे !
मानुस को जनम ,सुबुद्ध दई दाता ने
आपुनपो खोइ बढो जात रे कँवरिया !
*
बिसम दाह तिहुँपुर के धारि कंठ नील भयो
धीर-गंभीर चंद्रमौलि वे दिगंबरा !
उनही के चाहे जन्म-मृत्यु के विधान भये
विगत मान आत्मरूप धारे विशंभरा
तिनही के माथ जल डारन के काज हेतु
साधन बनायो तुहै धन्य रे कँवरिया !
*
काँवर उठाये चलि दीन्हों पयादे पांय ,
राह चलत और साथ वारे मिलि जायेंगे ,
और देस-दिसा सों अनेक व्रतवारे साथ
एक ही प्रवाह एक धारा बन जायेंगे ,
ॐबम्भोले नाद गगन गुँजाय रहे ,
एक रूप -प्राण ह्वै जात हैं कँवरिया !
*

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

नचारी-तोरी सारी पोल मैं तो खोलिहौं -

संकर को पोटि के पियाय दियो घोर विष
असुरन को छल से छकाय दई वारुणी
मिलि-बाँटि देवन सों आप सुधा पान कियो
मणि सै लीन्हीं अरु लक्ष्मि मन-भावनी
*
तेरो ही प्रताप सारे खारे समुन्दर भे
तेरी इहै बान तू सबै का नचावत है
आप छीर -सागर में आँख मूँद सोय जात
लच्छिमी से आपुने चरन पलुटावत है
*
नारद सो भक्त ताकेी छाती पे मूँग दरी
सभा माँझ बानर को रूप दे पठाय के
उचक-उचक रह्यो मोहिनी बरैगी मोंहिं
बापुरो खिस्यायो तोसों सबै विधि हार के
*
अब सो बिगार मेरो कर्यो ना हे रमापति ,
तोरी सारी पोल नाहिं खोलिहौं बखान के
ढरे रहो मो पे नहीं चुप्पै रहौंगी नहिं
खरी-खरी बात बरनौंगी जानि-जानि कै
*
कोऊ उपाओ मेरे काज सुलटाय देओ
स्वारथ न मेरो ,सामर्थ तेरो ही दियौ
ऐसो न होय तो से वीनती है मोर ,
कहूँ धरो रह जाय मेरो सारो करो-धरो!
*
तोरा विसवास तो अब तब ही करौंगी
जब देख लिहौं के तू मेरे संग ठाड़ो आय के ,
चोर रे कन्हैया,चाल खेलत जनम बीत्यो ,
करौंगी सिकायत उहाँ जसुमति से जाय के!
***

एक नचारी- मैना भइ बियाकुल

मैना भइ बियाकुल कइस मोरी बिटिया !
सुनि-सुनि चरचा थिर न रहत जिया !
पति भीख माँगे , अरु डमरु बजाबै ,
कइस परबतिया होई कहि पछितावै 1
*
कइस करत होई बउरे की घरनिया
एक पूत छै मुख दूजा लंबोदरिया !
छुट्टा-छड़ा नारद ओहि का भरमायो
तोडिहौ तँबूरा , जा खन सामैं आयो !
*
बूढ बिधाता ,जाय खींचौं वाकी दाढ़ी,
कौन जनम की दुसमनाई जौन काढ़ी !
बसहा सँग सिंह , नाग मूसा मयूरा,
कइस बिचित्तर ऊ कुनबा पूरा !
*
निकलीं महतारी हाथ पकरि लै आवौं
खरे-खरे बोल जाय हर को सुनावौं !
पति समुझाय रहे जनि विकल होहु,
जाय केआपुहि देखि किन लेहू !
*
भेस बदल गइलीं बिटिया घर माई ,
द्वार खड़ी देखे कइस प्रभुताई !
रिधि-सिधि वधू सेवें माथे पल्ला धर,
नंग भिखारी बनि बैठ्यो जगदीसुर !
*
लाभ-सुभ पौत्र मचलें खेलैं वा अँगना ,
देखि के जाहि सिहावैं सुर-अँगना
जा घर में घरनी भईं अन्नपुरना ,
सारे विरोध सम कीन्हें समपुरना !
*
कीन्ह परनाम मैना भईं सुखारी ,
गिरिजा मोरी दीन्हेउ कुल तारी !
***

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

नचारी - सागरकन्या

सागर की कन्या विष बंधु तेहि नाते सों,
ताही सों बहिनी है रंभा अरु वारुणी,
वाके पिये होत मद, इह का पाये ही होत
कितै गुनी अधिक इह मद-संचारिणी !
*
टिकै कहूँ नाहीं ,कभै इहाँ, कभै उहाँ ,
इह के मन की तरंग, जौन भावे सो करति हैं !
पति कइस कहे कुछू , बस्यो ससुरारै माहिं,
छीर-सिन्धु माँहिं आँख मूँदि के रहत है !
पुरातन पुरुष की वधू नवेली ,अलबेली अहै
तासों ही ह्वै गईं ई चंचला विहारिणी !
*
जा के रतनारे नयन के कटाच्छ ही ते
झूमि परे सोये हरि जाय शेष शैया पे !
जाके पास रहै ताके धरा पे न परत पाँय .
मत्त हुई जात जन जाके अपनाये ते !
तिहूँ लोक जोहै मुख किरपा हित ,देखे रुख
चाहे दीठ जाकी सदा सुख- संचारिणी !
*
देवि ,कृपा दृष्टि मोंपे सदा ही बनायो ,
हाथ जोरति परति पाँय सीस झुका आपुनो ,
तो सम न लीला मयी मो सम पुकारी कौन
मेरो अपराध सारो तोहे ही ढाँपनो !
का कहौं तोहार गुण , बानी को लाज लगे
मुक्त ह्वै लुटावति, ढरै जो काम दायिनी !
*

अश्वत्थामा-

अश्वत्थामा -
*
जरा सा घी दे दे माई !जरा सा माई दे दे घी !
मारता टीस घाव मेरा !
प्रभू कल्याण करे तेरा ! जरा सा ..
घरनिया निकली घर में से ,
बटोही, घाव हुआ कैसे ?
सबै करनी का फल आही !.. जरा सा
बड़ो ऊँचो-पूरो लरिका ,
किन्तु मुख पीड़ा से मुरझा ,
बात वह समझ नहीं पाई ! जरा सा
खून और पीप रिसा आता ,
बैद को जाकर दिखलाता !
न,इसकी दवा नहीं पाई !जरा सा ..
कहाँ से चोट मिली भइया ?
पुरानी कितनी हे दइया !
देख कर टूट रहा है जी !जरा सा ..
हुआ विचलित देखे से मन ,
कर रहा तू दिन-रात सहन,
किसी को दया नहीं आई ?जरा सा ..
न पूछो माँ, बस दे दो घी ,
शान्त कुछ हो जायेगा जी !
व्याधि का पार नहीं कोई ! जरा सा ..
हथेली घी धर लौट चला ,
देखती घरनी गया चला !
हिया में करुणा भर आई !जरा सा ..
कौन यह और कहाँ रहता
भयानक पीड़ा को सहता !
कोइ तो बतला दे भाई ! जरा सा ..
**
अरे ऊ अश्वत्थामा रहे ,
महाभारत का पापी अहै !
ज्योति-मणि थी मस्तक पाई ! जरा सा
द्रौपदी ने तो जीने दिया ,
किंतु अर्जुन ने दंडित किया !
काट शिरमणि ली ज्योतिमयी ! जरा सा
द्रौपदी के पाँचहु बारे ,
सोवते माँहि मारि डारे !
इहै गति है उस पातक की !जरा सा ..
शाप है ई चिरकाल जिये ,
कोटि बरसों तक ये दुख सहे !
न आये इसको मृत्यु कभी !जरा सा ..
जनावत नहीं नाम अपुनो,
कहीं पहचान न ले कउनो !
व्याधि का अंत कहाँ इहकी !जरा सा ..
अरे अब छिमा करौ ओहिका ,
प्रभो ,करि देउ मुक्त लरिका !
घरनियां ने अस बात कही ! जरा सा
कौन है इहाँ दूध का धुला ,
बड़े ऊँचे -ऊँचन ने छला !
कलपती हुइ है मातु कृपी !जरा सा ..

बालापन की जोरी-

तुम्हरे बालापन की जोरी ,
रुकमिन बूझति सिरी कृष्ण सों कहाँ गोप की छोरी ?'
'उत देखो उत सागर तीरे नील वसन तन गोरी ,
सो बृसभान किसोरी !'
सूरज ग्रहन न्हाय आए तीरथ प्रभास ब्रिजवासी ,
देखत पुरी स्याम सुन्दर की विस्मित भरि भरि आँखी!
'इहै अहीरन करत रही पिय तोर खिलौना चोरी ?'
हँसे कृष्ण ,'हौं झूठ लगावत रह्यो मातु सों खोरी !
एही मिस घर आय राधिका मोसों रार मचावे ।
मैया मोको बरजै ओहि का हथ पकरि बैठावे ।'
उतरि भवन सों चली रुकमिनी ,राधा सों मिलि भेंटी ,
करि मनुहार न्योति आई अपुनो अभिमान समेटी !
महलन की संपदा देखि चकराय जायगी ग्वारी
मणि पाटंबर रानिन के लखि सहमि जाइ ब्रजबारी !
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ऐते आकुल व्यस्त न देख्यो पुर अरु पौर सँवारन ,
पल-पल नव परबंध करत माधव राधा के कारन ! !
'मणि के दीप जनि धर्यो ,चाँदनी रात ओहि अति भावै ,
तुलसीगंध ,तमाल कदंब दिखे बिन नींद न आवै !
बिदा भेंट ओहिका न समर्पयो मणि,मुकता ,पाटंबर ,
नील-पीत वसनन वनमाला दीज्यो बिना अडंबर !
राधा को गोरस भावत है काँसे केर, कटोरा ,
सोवन की बेला पठवाय दीजियो भरको थोरा !'
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अंतर में अभिमान, विकलता कहि न सकै मन खोली
निसि पति के पग निरखि रुकमिनी कछु तीखी हुइ बोली ,
'पुरी घुमावत रहे पयादे पाँय ,बिना पग-त्रानन ,
हाय, हाय झुलसाय गये पग ऐते गहरे छालन ?'
'काहे को रुकमिनी ,अरे ,तुम कस अइसो करि पायो ?
ऐत्तो तातो दूध तुहै राधा को जाय पियायो ?
दासी-दास रतन वैभव पटरानी सबै तुम्हारो ,
उहि के अपुनो बच्यो कौन बस एक बाँसुरी वारो !
एही रकत भरे पाँयन ते करिहौं दौरा -दौरी
रनिवासन की जरन कबहूँ जिन जाने भानुकिसोरी !'
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खिन्न स्याम बरसन भूली बाँसुरिया जाय निकारी,
उपवन में तमाल तरु तर जा बैठेन कुंज-बिहारी /!
बरसन बाद बजी मुरली राधिका चैन सों सोई
आपुन रंग महल में वाही धुन सुनि रुकमिनि रोई !
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रह-रह सारी रात वेनु-धुन ,रस बरसत स्रवनन में ,
कोउ न जान्यो जगत स्याम निसि काटी कुंज-भवन में !
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