बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

नचारी - नोक -झोंक

'पति खा के धतूरा ,पी के भंगा ,भीख माँगो रहो अधनंगा ,
ऊपर से मचाये हुडदंगा , ये सिरचढी गंगा !'
फुलाये मुँह पारवती !
*
'मेरे ससुरे से सँभली न गंगा ,मनमानी है विकट तरंगा ,
मेरी साली है, तेरी ही बहिना ,देख कहनी -अकहनी मत कहना !
समुन्दर को दे आऊँगा !'
*
'रहे भूत पिशाचन संगा ,तन चढा भसम का रंगा ,
और ऊपर लपेटे भुजंगा ,फिरे है ज्यों मलंगा !'
सोच में है पारवती !
*
'तू माँस सुरा से राजी ,मेरे भोजन पे कोप करे देवी .
मैंने भसम किया था अनंगा ,पर धार लिया तुझे अंगा !
शंका न कर पारवती !'
*
'जग पलता पा मेरी भिक्षा ,मैं तो योगी हूँ ,कोई ना इच्छा ,
ये भूत औट परेत कहाँ जायें ,सारी धरती को इनसे बचाये ,
भसम गति देही की !
*
बस तू ही है मेरी भवानी ,तू ही तन में में औ' मन में समानी ,
फिर काहे को भुलानी भरम में ,सारी सृष्टि है तेरी शरण में !
कुढ़े काहे को पारवती !'
*
'मैं तो जनम-जनम शिव तेरी ,और कोई भी साध नहीं मेरी !
जो है जगती का तारनहारा , पार कैसे मैं पाऊँ तुम्हारा !'
मगन हुई पारवती !
*

कोई टिप्पणी नहीं: