बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

नचारी - सागरकन्या

सागर की कन्या विष बंधु तेहि नाते सों,
ताही सों बहिनी है रंभा अरु वारुणी,
वाके पिये होत मद, इह का पाये ही होत
कितै गुनी अधिक इह मद-संचारिणी !
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टिकै कहूँ नाहीं ,कभै इहाँ, कभै उहाँ ,
इह के मन की तरंग, जौन भावे सो करति हैं !
पति कइस कहे कुछू , बस्यो ससुरारै माहिं,
छीर-सिन्धु माँहिं आँख मूँदि के रहत है !
पुरातन पुरुष की वधू नवेली ,अलबेली अहै
तासों ही ह्वै गईं ई चंचला विहारिणी !
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जा के रतनारे नयन के कटाच्छ ही ते
झूमि परे सोये हरि जाय शेष शैया पे !
जाके पास रहै ताके धरा पे न परत पाँय .
मत्त हुई जात जन जाके अपनाये ते !
तिहूँ लोक जोहै मुख किरपा हित ,देखे रुख
चाहे दीठ जाकी सदा सुख- संचारिणी !
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देवि ,कृपा दृष्टि मोंपे सदा ही बनायो ,
हाथ जोरति परति पाँय सीस झुका आपुनो ,
तो सम न लीला मयी मो सम पुकारी कौन
मेरो अपराध सारो तोहे ही ढाँपनो !
का कहौं तोहार गुण , बानी को लाज लगे
मुक्त ह्वै लुटावति, ढरै जो काम दायिनी !
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