रविवार, 18 अक्तूबर 2009

काँवरिया

सावन महीना बम्भोले को हिये धारि
त्यागि गृह साधु-भेस धारै है कँवरिया !
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फूलन-बसन सों रुच-रुच सजी निहारि
ग्राम-जुवती बढ़ि आई राह कोर पे ,
काँवर की सोभा निहारि रही नैनन सों,
भइया रे ,इहां तुम आये हो कौन छोर से ?
कइस जतन से सजाई ओहार डारि
मोर मन देखि के जुड़ात, रे कँवरिया !
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काँवर में भरि जल लाये लाये कौन तीरथ को ,
काहे ते ओहिका धरा ते ना छुआत हौ ?
दूर-पार देस ,भार काँवर को .काँधे लै ,
मारग अगम पाँ पयादे चले जात हौ !
और बात पीछे, पहले इहै बताय देहु
आये कहाँ ते कहाँ जात हो कँवरिया !1
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जीवन- जलधार अथाह आदि-अंत नाय
काँवर में नीर हौं तहां से लै जात हौं
सीतल विमल ताही स्रोत को प्रवाह ,
लै जाय के दिगंबर भूतनाथ को चढ़ात हौं !
धरती की रज छुये राजस न होइ जाय
सुद्ध सतभाव को चढ़ावत कँवरिया !
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मन की उमंगा लिये गंगा की तरंगा !
आपुन लघु पात्र जित समायो भरि लायो हूं !
कामना न मोरी कछु भावना चलाय रही
जाया धाम पूत नात सबै बिसारि आयो हूँ
राग-द्वेस ,मोह-मान भूलि के विराग धारि
जीवन के पुन्य-राग लीन है कँवरिया
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कुछू बिलमाय लेहु चौतरा पे बैठि ,नेक
राम की रसोई को परसाद पाय लेहु रे ,
नीम की बयार में जुड़ाय लेहु स्रमित देह
धूप बरसात की तपाय कष्ट देत रे !
उत्तर की ओर मुड़ि जात वृत्ति जीवन की
देह धरे तीरथ लखात है कँवरिया !
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भाव-लीन मानस में भूख-प्यास ,सीत-ताप ,
व्यापत न ,सींचति है भावना फुहार-सी !
माई री ,ममता में मन को न बोर ई है
तप की विराग भरी बेला त्योहार सी ,
एक व्रत है सो निभाइ के रहौंगो ताहि
सुविधा के हाथ ना बिकाइ हैं कँवरिया !
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देह-भान भूलि भाव-लीन मन धारि व्रत
जात्रा में ऐते दिन परम सुख पायो रे !
कुछू नायँ चाहै बे रहत समाधिलीन ,
प्रकटन कृतज्ञता को आपुनो उपायो रे
पुन्य-थल भक्ति -जल परम पुनीत भरे
सत्य ही कृतार्थ हुई जात है कँवरिया !
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इतै दिन मन साधि रहौं साधु निहचय करि ,
फिर तो गृहस्थ हूँ जगत को निभाइहौं ,
व्रत को सत-भाव आसुतोस को प्रभाव
धारि मानस की वृत्तिन को निरमल बनाइहौं
माई , आनन्द-नीर मानस पखारन को
पाप-ताप-साप हू नसाये, रे कँवरिया !
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बरस-बरस मास-मास ऐही व्त धारि धारि ,
या में सत-भाव ही सुभाव बनि जात रे
काँटे और कंकर जो संकर की साधना में
ऊँची-नीची राहन को प्रसाद बन जात रे !
मानुस को जनम ,सुबुद्ध दई दाता ने
आपुनपो खोइ बढो जात रे कँवरिया !
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बिसम दाह तिहुँपुर के धारि कंठ नील भयो
धीर-गंभीर चंद्रमौलि वे दिगंबरा !
उनही के चाहे जन्म-मृत्यु के विधान भये
विगत मान आत्मरूप धारे विशंभरा
तिनही के माथ जल डारन के काज हेतु
साधन बनायो तुहै धन्य रे कँवरिया !
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काँवर उठाये चलि दीन्हों पयादे पांय ,
राह चलत और साथ वारे मिलि जायेंगे ,
और देस-दिसा सों अनेक व्रतवारे साथ
एक ही प्रवाह एक धारा बन जायेंगे ,
ॐबम्भोले नाद गगन गुँजाय रहे ,
एक रूप -प्राण ह्वै जात हैं कँवरिया !
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