सोमवार, 19 अप्रैल 2010

एक -चित्र

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भोर भयो ,दुलहिन निकरि गई भुरहरे ही
पति सोवत रहे दिन चढ़े उजारे लौं ।
जेठ ननदोई सबै अंगना बिराज रहे
न्हाय-धोय दुलहिन आय गई रसुइया मां!
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लाल लाल चुनरी सितारन से टँकी जाकी ,
किरन किनारी की आनन पे छाय रही,
बैठि गई जिठनी के तीर आय चउकी पे
भाल लगी बिंदिया कइस मोहिनी सी डारि रही!
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कहाँ गयो सारो ननदोई पुकारि रहे
अबहूँ न नींद खुली दिन चढ़ि आयो है
सोयो सो लरिका अँगड़ात- जमुहात भयो
बाहर निकरि अँगना में आय ठाड़ो है !
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भइया मुँह दबाये हँसैं ,जीजा को अट्टहास
छुटका मुसकाय मौन तकै जात सामुने ,
औंचक सो भौंचक सो समझ न पायो कुछू
ठाड़ो चकरायो कहा रच्यो इहाँ राम ने ।
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भाभी निकरि आई रसोई से हँसी से भरी-
'कुर्ता पे छाय रहे सेंदुर के दाग रे
अइना में जाय रूप आपुनो निहार लेहु
मुख दिखात घड़ी जइस बारह बजाय के.'
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गूँजी समवेत हँसी, कमरा में भागि गयो
कौन परे फालतू इहाँ की खुराफात मं
नयो -नयो पति भकुआयो सो रहे चुप्प
छेड़ रहे सिगरे इहाँ तो बात-बात में !
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