गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

बटोहिया -

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राह तीर पनघट पे गागर को धोय माँज,
सीस साधि इँडुरी ,जल धारि पनिहारिया
पंथी से पूछि रही कौन गाम तेरो ,
तोर नाम-काम कौन, कहाँ जात रे बटोहिया.
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जनम से चलो जात ,मरण की जातरा पे,
मारग मैं धूप-छाँह आवत-है जात है !
कोई छाँह भरो थान देखि बिलम लेत कुछू ,
कोई थान ,घाम गात ताप अकुलात है !
बेबस चलो जात कोऊ रोके को दिखात नाहीं
मारग पे जात लोग साथ रे बटोहिया !
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जाने कहां ते ई धरती पे आय पड़्यो
जाने कइस ,जाने कहाँ ,जाने काहे जानो नाहिं
कोऊ नाहीं हुतो, कोऊ जान ना पिछान
खाली हाथ रहे दूनौ आप हू को पहचानो नाहिं
मारो-मारो फिरत हूँ दुनियां की भीर
चलो जात हूँ अकेलो,  कहात हूँ बटोहिया !
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साथ लग जात लोग ,और छूट जात हैं
नाम मोय नायं पतो ,लोग धर दीनो है
जातरा में पतो कौन आपुनो परायो कौन
सुबेसे चलो हूँ संझा तक गैल कीन्हों है ,
पूछति है बार-बार कौतुक से भरी नार
पथ को अहार ,कहा लायो रे बटोहिया ,
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माथे धरी पोटली में धर्यो करम को अचार ,
रोटी तो पोय के इहाँ ही मोहे खानी है ।
मोह-नेह भरे चार बोल तू जो बोल रही
ताप और पियास हरि जात ऐसो पानी है
आगे को रँधान हेत करम समेट मीत,
बाँध साथ गठरी में गाँठ दै बटोहिया !
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राह अनबूझी सारे लोग अनजाने इहाँ ,
आय के अकेलो सो परानी भरमात है
वा की रची जगती के रंग देखि देखि मन
ऐसो चकियायो अरु दंग रहि जात है !
भूलि गयो भान काहे भेजो हैं इहाँ पे ठेल
ओटन को लाय के कपास रे बटोहिया
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उहै ठौर जाए पे पूछिंगे कौन काम कियो ,
सारो जनम काटि कहो लाए का कमाय के
घड़ा जल पूर सिर , पनिहारी हँसै लागि,
बात को जवाब कइस देहुगे बनाय के .
धोय-माँज मन की गगरिया में नेह पूरि
पल-पल सुधि राख जिन पठायो रे बटोहिया
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5 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

प्रतिभा जी आपकी इस रचना मे पूरा जीवन दर्शन छुपा है। बहुत अच्छी लगी रचना। बधाई।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

इस रचना का तो आनन्द ही अलग है!
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बहुत सुन्दर रचना!
प्रशंसा के लिए शब्द कम पड़ रहे हैं!

मनोज कुमार ने कहा…

अति उत्तम।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुन्दर रचना!
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मंगलवार के साप्ताहिक काव्य मंच पर इसकी चर्चा लगा दी है!
http://charchamanch.blogspot.com/

Anamikaghatak ने कहा…

jivan darshan ko ukerti hui ye rachana aapki adbhut hai........likhte rahiye