रविवार, 28 फ़रवरी 2010

नचारी - होरी के हुरंग में..

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होरी के हुरंग में देखोई सारदा को रूप
सारी सुपेद सारी कइसन रँगाय गई .
पुस्तक के आखरन पे छायो अबीर,
सेत सतदल की पाँखुरी गुलाल सों छिटाय गईं,
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ढोल बजे ढम-ढम ,मँजीरन की झमक-गमक,
चंदन परि पाँखुरी पलास लिपटाय गई.
पुस्तक बहावन की बात करत रहे ताकी ,
अटपटी बानी पे खुदै बानी रिझाय गईं.
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बीना के तारन पे बजन लाग लोक- राग ,
सुर की तरंग मंत्र-गान बिसराय गई.
बहिनी पे रंग, आँख फारि देखि रहे संभु,
चूकीं न भवानि ननदी को बोल मारि गईं -
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'बनी बड़ी कुमारी, कलावती अरु ज्ञानमती .
भइया की भांग लगत बहिनी चढ़ाय गईं .
सतगुन की साधिका ह्वै रहैं अविकारी गिरा ,
माधव मदन ऋतु पाय फगुनाय गईं .'
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गौरा के बोल सुनि बानी मुसकाय रहीं,
मति मारी गई भौजी की, समुझाय को ,
भइया को देखि सकुचाय के कबूल दियो ,
परतिभा की विनती के हठ के सुभाय को .
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रंगीन चसमा दै दीठ भरमाई अइस
अविकार सदा मोर उज्जर पवित्रता
कामना पुराय तासों इन्द्रजाल रच्यो इहाँ,
सबै अरुझाय गये ,देखि के विचित्रता
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जेहि ठौर राजें हंसवाहिनी सरस्वती-माँ
तहाँ प्रतिभात रहे मति की समग्रता
निर्मल-धवल सुश्लोक सदा वरदायिनी हे,
छमिहो हमार दोष तीन लोक अर्चिता !

1 टिप्पणी:

Taru ने कहा…

बहुत बहुत बहुत सुन्दर नचारी है...एकदम नाम की ही तरह....भाषा और शब्द सौंन्दर्य में मन खो सा गया...मुग्ध मुग्ध सम्मोहित से भाव के साथ टिप्पणी लिख रही हूँ......इस रचना को पढना aaj के din की uplabdhi रही.....kyunki kitni masoom नज़र aatin हैं माँ saraswati और माँ gauri आपकी इस नचारी में....बहुत सामान्य मगर सादगी से परिपूर्ण और बेहद ख़ास......aisaa चित्रण kahin maine padha नहीं माँ सरस्वती के लिए.....

आभार है इस lekhan के लिए..!!