बुधवार, 14 जुलाई 2010

कृ्ष्ण-भक्ति का फ़ण्डा

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नहीं समझ में समा रहा है भगत तुम्हारा फ़ण्डा !
गंगा जल से धो कर जैसे होय निरामिष अंडा !
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मरद-जात है या मेहरारू पता नहीं क्या चक्कर !
कुछ न बताये कोई, सारे चुप रह जाते हँसकर !
सब्ज़ीवाले सच सच बतला ,घुइयाँ है या बंडा !
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धरी उतार कड़क वर्दी , पहनी घाघरिया चोली ,
पाँव महावर, रँगे होंठ , पर चुगली करती बोली !
बजा तालियाँ ठुमक ठुमक कर नाच रहे हैं सण्डा !
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गलियों का हुड़दंग देख कहती थीं मेरी नानी ,
अब समझी हूँ अर्थ और तुक, जो थी बात पुरानी - 3
'घर चून न बाहर कंडा ,होरी खेलें संड-मुसंडा !'
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कितना कुछ पाया जीवन में गई न मन की तृष्णा,
कुण्ठित मन में विकृत लालसा मुख पर कृष्णा कृष्णा.
चेले चाँटी साथ लग गये करने वाग्वितण्डा !
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गीता- ज्ञान भाड़ में, ऐसी तैसी कर ड्यूटी से ,
सब कुछ छोड़ मुरीद बन गये मधुबन की क्यूटी के !
कुछ भी कह लो ध्यन लीन हैं ,बगुला भगत अखण्डा !
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अंहाँ गोपिका ग्रामवासिनी नवल-किशोरी भोली ,
खेला खाया घाघ चलाये कहाँ नयन से गोली
नहीं अजूबा ऐसा देखा सप्त द्वीप नव खण्डा !
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रंग रास अब रास आ रहा औरों से क्या नाता ,
जिसको आना हो आये जाये जो होवे जाता !
पीछा छूटे घरवाली से ऐसा करो प्रबन्धा !
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चनिया चोली चुनरी धारण कर लो सभी सिपहिया
चूड़ी पहन बाँध लो घुँघरू नाचो ताता थैया !
या ग्वाले बन साथ निभाओ लिये हाथ में डण्डा
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लचका कमर ,लगाते ठुमके , मटकें हाथ नचाकर !
नगर नगर में करे नुमायश दिखला त्रिया चरित्तर!
यहाँ दाल में काला है कुछ , बतला देगा अन्धा !
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विधि की अनुपम रचना का कैसा मज़ाक यह भद्दा ,
ऊपर से प्रभु-इच्छा बतला और जड़ दिया रद्दा !
घाट-घाट का पानी चक्खा अब चल, बजा मृदंगा !
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ग्रामर जिसने पढ़ी छोड़ दे नर नारी का चक्कर ,
कामन भी ये नहीं, बहुत संभव, हों न्यूटर जेंडर !
सुनी शिखण्डी की चर्चा पर अब तो प्रकट शिखण्डा !*

1 टिप्पणी:

राजभाषा हिंदी ने कहा…

नहीं समझ में समा रहा है भगत तुम्हारा फ़ण्डा !
गंगा जल से धो कर जैसे होय निरामिष अंडा !
वाह! बहुत सुंदर।

... राष्ट्रीय व्यवहार में हिन्दी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिए आवश्यक है।