गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

बाउल गीत

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तेरे रंग डूबी, मैं तो मैं ना रही !
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एक तेरा नाम ,और सारे नाम झूठे,
ना रही परवाह जग रूठे तो रूठे
सुख ना चाहूँ तो से ,ना रे, ना रे ना, नहीं !
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एक तु ही जाने और जाने न कोई,
जाने कौन अँखियाँ जो छिप-छिप रोईं
एक तू ही को तो , मन और का चही !
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बीते जुग सूरत भुलाय गई रे ,
तेरी अनुहार मैं ही पाय गई रे .
पल-छिन मैं तेरे ही ध्यान में बही !
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एक खुशी पाई तोसे पिरीतिया गहन ,
तू ना मिला, मिटी कहाँ जी की जरन ,
तेरे बिन जनम, बिन अगन मैं दही !
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कि मैं झूठी, कि ये वचन झूठा ,
जा पे सनेह सच, मिले सही क्या .
रीत नहीं जानूँ, बस जानूँ जो कही !
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4 टिप्‍पणियां:

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

बहुत सुन्दर एवं मार्मिक गीत है। लोकगीतों को सहेजना उनके संरक्षण के लिए अतिआवश्यक है, इस दिशा में आपका यह कार्य प्रशंसनीय है। बधाई।

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

शरद जी ,
आपको अच्छा लगा ,प्रसन्नता हुई ,लेकिन यह लोकगीत नहीं है ,मेरा रचा हुआ है बाउल (गीतों के पैटर्न पर).मुझे प्रसन्नता हुई कि आपको मेरी इस नकल में असल का भ्रम हो गया .धन्यवाद.

ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने कहा…

आदरणीय प्रतिभा जी,
गीत में निश्छल प्रेम और सोंधी मिट्टी की खुशबू समाहित है !
मन के भावों की सुन्दर रश्मियाँ निखर कर उभरी हैं !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ

M VERMA ने कहा…

रीत नहीं जानूँ, बस जानूँ जो कही !
प्रीत की रीत तो अनोखी होती है .. सांसारिक रीत से परे
बहुत सुन्दर रचना