गुरुवार, 12 नवंबर 2009

लोक-रंग -

मुँह टेढा लिये खिड़की पे आ गया ,
मेरे कमरे में चाँद लगा झाँकने !
*
भोर बोला था कागा अटारी पे ,
दूध उबला था चूल्हे की मुँहाड़ी पे ,
मैंने सोचा ये,मैं ही भरमा गई ,
एक बादल सा दिख गया पहाड़ी पे !
फूल बगिया में हँसी गुल बकावली ,
और बेला महक गया रात में !
*
पिया पिया बोल गया क्या पपीहरा ,
जिया कैसी वियाकुल विथा घिरा ,
आँख देख रही दूर कहीं जाने क्या ,
कहीं विरही की बाँसुरी ने सुर भरा !
राग भीतर कचोट सी जगा गया ,
चार बूँदें छलक आईं आँख में !
*
फिर खटकी थी कुंडी दुआरे की ,
और बत्ती जली ओसारे की !
सेत केसन में लाली सिन्दूर की ,
बिंदिया माथे अठन्निया अकार की ,
सास दे रहीं 'असीस पूत चिर जियो ',
मूछोंवाले ससुर जी भी साथ में !
*
पास आ रही लो, चलने की आहटें ।
और पास ,और पास, और पास हो !
रात जादू बिखेर रही सामने ,
आधे आंगन की चाँदनी उजास हो !
आँख मूंदे पड़ी मैं चुपचाप ही,
बैरी कँगना खनक गया हाथ में !

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