शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

बाबूजी

बिदा होत हमका सबै समुझायो रहे,ससुर जेठ सामैं मुँ ढाँकि के ही रहियो ।
ऊँची अवाज नहीं ,केहू को सुनाय न दे मंद-मंद हँसियो ,मुस्कराय रहि जइयो
देउर ननद संग हम बतियात रहे ,माथे को पल्लू खुलि पर्यो रहे पीठ पे
ऐते में दीख्यो ,ससुर जी उहाँ आय गये हाय राम पल्लो न आय रहो हाथ में
*
मेज पर्यो मेजपोस झटपट घसीटि लियो वाही से मूड़ मुँह भींचि लियो आपुनो
कापी -कितबियाँ उलटाय गई नीचे अउर स्याही की दवात हू पलटि गई का करौं
देवर चिल्लाय परो-हाय हाय भाभी, अउर हम घबराय अब होई का राम जी
चुप्पे रहे ,बोलैं का गलती हमार अउर और बाबू जी ठाड़े बड़ी मुस्किल में जान री !
*
देउर बतायो फिन बाबू चकराय गये ई का भयो देखि रहे आँखि फार-फार के
का कहैं ,तुम अइस डरी -मुँदी मूड़ डारे ऊ हँसी दबात लौटि गये कमरा में हारि के !
थोरी देर बाद 'बहू को इहाँ भेजि देओ ,डरे-सकुचे से जाय ठाड़े भे पास में
' आओ बहू , कुर्सी पे बैठि जाओ नेक इहाँ ,इंगलिस अखबार ऊ उठाय लेओ हाथ में
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घूँघट हटाय पढि हमका सुनाय देओ आजि से तुम बात करो हमरे हू साथ मे !
तीनि बड़ी बहुअन सों आज तलक बोले नाहीं छोटी बहू की पुकार होत बात-बात में !
सुनि अखबार दीन्हें पच्चिस रुपैया ,हम उनका चरन छुइ माथे चढ़ाय लिये
विद्या के बड़े सौखीन रहे बाबूजी हम जौन लिख्यो माँगि पढ़ते सिहाय के
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चउका में देखि ऊ सासू-माँ का टेरत थे काहे को ओहिका घुसायो रसुइया माँ
कित्तो सम्हरिये ,अभै पढ़त से आई ह्वै ,रहे देओ उहका न डारो चूल्हा चउका माँ ।
सासू चिल्लाय परीं न्हाय-धोय आई तासों अदहन में दार डारि भर को पठायो हम
तुम्हरी त्यूनार बहू बी.ए .पास आई अंगरेजी गिटपिटात इहौ बात सबै जानित हम !
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तास खेल फ़्लश, उहै पइसन को दिवारी वारो, बाबूजी ही हमका सिखायो पास बइठ के
दैके रुपैया ऊ बोले चलो दाँव चलो ,पइसा सिखाय देगा खेल बड़े खूब से !
कायथन को घर इहाँ की चाल औरे और कोई माने न चाहे तिन्हें हिन्दुन की जात में
खिड़की दिमाग की खुली ही राखत हमेस तभै तो सदा चलत हैं टाइम के साथ में
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तीन दिन दिवारी पे फ़्लश दिन-रात जमें ,एक डेढ़ बजे सोवैं रोज रात-रात में
नाते के देउर और ननदें जमें ही रहें बहू खेलें-बेटा खेलें ससुर जी भी साथ में
अरे हाँ ,दिवारी पे ,बोले फलान जाओ ,दुलहिन को रोसनी दिखाय लाओ जाय के
बाबू जी ,भीड़ इनको कहाँ लै जायँ हम उ हाँ बजार में ,का करिहो पठाय के
*
आये ऊ काँधे हमारे धरि हाथ बोले ,नाहीं लै जात बदमास जाने देओ वा को
काहे उदास होति कामचोर जनम को ऊ, चलो हम तुमका दिखाय चलत साथ में
आँखें दिखाय हम आपुन मनई से कह्यो तुमका का जोर परी चलत हो काहे ना
ऊ बूढ़ मनई ,उनका जाये का परी, कइस लगी बहू जाय ससुर जी के साथ मां
*
बाबूजी ,बाबू जी ,आप बिसराम करो , आप जइस कह्यो हम दिखाये लै जात हन
रोसनी ससुरारै की मन माँ समाय गई ,बाबूजी की याद सदा आवत है साथ में !
बड़े पढ़ेगुने ,खुले मन के हमार ससुर ,सासू-माँ उदार कुछ पराने खयाल की ,
तीन बहू देखि टोका-टाकी बिसारि दीन ,सारी छूट छोटी ने पाई बड़े भाग की !
*
चुपके से हमका मिठाई पकराय देतिं , कुइयाँ वाली सिदरी में खाय लेओ जाय के
सासू-माँय से तो सहिलापो निभि जात रहे ,हम जौन पूछत ऊ सबै कुछ बताय दें ,
बाबूजी की चिट्ठी में सुरूआत कइस करत रहीं हमका ई जानन को अम्माँ मन होत है
काहे से कि पोता की लार जिन टपके हमार चाह पूरी होय उन्हई को अदेस है
*
देखो तुम कहियो किसऊ से न जाय हम तुमका बताये देत आपुस की बात ही
शिरीमान प्यारे जी ,सदा इहै लिख्यो अउर नीचे आपुन के लै जनम-जनम आपकी
ब्रेड औ'जिलेबी हमका पठवाय देत जबहूँ त्यौहार करै बीच में हम आवते !
कमरा में आय आय देख जात बाबू जी पंखा बहू को कोऊ लै न ले उठाय के
*
हमका उन्हइ की याद बार- बार आवति है ससुर न कहिबे हमार बाबूजी रहैं ,
उनको लाड़-प्यार कोऊ पुन्न हौ हमार, किती किती बात याद जिउ भरि आवत हैं !

4 टिप्‍पणियां:

करण समस्तीपुरी ने कहा…

आंचलिक भाषा प्रांजल शैली और अद्भुत कथा...... मन को मोह लिया....... !!

Satish Saxena ने कहा…

लगता है आपकी ही कहानी है ... बाबूजी को प्रणाम !

Taru ने कहा…

क्या कहूं कुछ समझ नहीं आ रहा.....??आज कम बोलने का दिल है वैसे भी...:)

''हमका उन्हइ की याद बार- बार आवति है ससुर न कहिबे हमार बाबूजी रहैं ,
उनको लाड़-प्यार कोऊ पुन्न हौ हमार, किती किती बात याद जिउ भरि आवत हैं !''

यहाँ खुद को रोक नहीं पायी......मन भीग गया.......सिर्फ उस आभार और स्नेह को महसूस करके......जिसे आपने इस गीत में ढाला है....मानो मैं ही ''आप'' बनके ये सब शब्दों के ज़रिये महसूस करती रही......

खैर..
बहुत देर तक इस गीत का जादू दिल-ओ-ज़ेहन पर छाया रहेगा....उससे बाहर मैं भी नहीं आना चाहूंगी.....

शुक्रिया !! इस गीत के लिए...

Taru ने कहा…

ek teevra utkantha uthi is kavita ko pun: padhne kee..firse chali aayi..fir man bheeg gaya..fir shabdon ka akaal hai.mann mein kabhi koi ek tamanna thi mere..padhkar fir taaza ho gayi.

bahut bahut bahut bahut achhi lagti hai ye kavita..mujhe shabdsh: yaad nai rehti..akhiri do panktiyaan gungunaati hoon khoob.........:) :) :)